क्या तमिलनाडु की तरह पूरे देश में गैर-ब्राह्मण पुजारी बनाए जाने चाहिए ?
अगर बहुजन पुजारी बनेंगे तो बाबा साहब के मिशन का क्या होगा?
क्या दलितों को हिंदू मंदिरों में पुजारी बनना चाहिए? क्या आदिवासियों को मंदिरों में पूजा-पाठ कराना चाहिए? क्या ओबीसी को जनेऊ पहनकर हवन कराने चाहिए? क्या बहुजनों के पुजारी बनने से अंधविश्वास और हिंदूवादी विचार ही नहीं बढ़ेंगे? अगर बहुजन पुजारी बनेंगे तो बाबा साहब के मिशन का क्या होगा?
ये वो सवाल हैं जो तमिलनाडु में ग़ैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति के बाद से सवर्णों के साथ-साथ बहुजनों के दिमाग़ में भी उठ रहे हैं। इस लेख में आगे हम इन सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश करेंगे।
जन्म-जाति के आधार पर आरक्षण के जनक हैं ब्राह्मण
आरक्षण… हमारे देश में ज़्यादातर सवर्ण एससी-एसटी और ओबीसी को मिले संवैधानिक आरक्षण को खूब कोसते हैं, बार-बार 70 साल से आरक्षण मिलने की दुहाई देकर हायतौबा मचाई जाती हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि हमारे देश में आरक्षण की शुरुआत ब्राह्मणों ने की थी? जी हाँ, ब्राह्मण ही जन्म और जाति के आधार पर आरक्षण के सिद्धांत के जनक हैं। ब्राह्मणों ने मंदिरों में पुजारी बनने, पूजा-पाठ कराने, हवन कराने, जन्म और मरण के वक़्त अनुष्ठान करने, वेदों और पुराणों को पढ़ने के अधिकार को सिर्फ़ और सिर्फ़ ब्राह्मण जाति के लिए ही आरक्षित रखा।
ब्राह्मणों के लिए 100 % आरक्षण
पिछले 5 हज़ार साल से भारत में ब्राह्मणों का ये 100 % आरक्षण बिना किसी रोक-टोक के जारी है लेकिन अब ब्राह्मणों की इस आरक्षण स्कीम में ग़ैर-ब्राह्मण जातियों को भी लाभ देने के लिए तमिलनाडु सरकार ने शानदार कदम उठाया है। तमिलनाडु के सीएम एमके स्टालिन ने तमिलानाडु के मंदिरों में ग़ैर-ब्राह्मण जाति के पुजारियों को नियुक्त कर दिया है।
इनसे से मिलिए, ये हैं एस. प्रभु और एस. जयबालन, ये दोनों त्रिची के प्रसिद्ध ऐतिहासिक वायलुर मुरुगन मंदिर के नए गैर–ब्राह्मण पुजारी हैं। एस. प्रभु के पिता दर्ज़ी हैं। यानी तमिलनाडु में अब किसी भी जाति का व्यक्ति पुजारी बन सकता है।
गैर-ब्राह्मणों को मिली पुजारी बनने की ट्रेनिंग
लेकिन अब कुछ लोग कहेंगे कि पूजा-पाठ कराने, हवन कराने, मंत्र बोलने और पुजारी बनने के लिए ख़ास तरह की योग्यता यानी मेरिट होनी चाहिए। ब्राह्मण इसके लिए बाक़ायदा पढ़ाई करते हैं, अपने घर-परिवार में पूजा पाठ कराते हैं और फिर किसी मंदिर के पुजारी बनते हैं। सोशल मीडिया पर आजकल ऐसे लोग खूब टेसुए बहा रहे हैं। ऐसे लोग एक तरीक़े से सिर्फ़ और सिर्फ़ ब्राह्मणों को पुजारी बनाये जाने के हिमायती होते हैं। इसलिए ऐसे लोगों की जानकारी के लिए बता दूँ कि तमिलनाडु सरकार ने इसके लिए ख़ास इंतज़ाम किये हैं।
पुजारी बनने का कोर्स किया, परीक्षा पास की
सरकार ने पुजारी बनने के लिए एक कोर्स डिज़ाइन किया गया था। तमिलनाडु सरकार ने 2007-08 के बीच अर्चका ट्रेनिंग सेंटर खोले थे। अर्चका का मतलब होता है पुजारी। इन ट्रेनिंग सेंटर में दलित, आदिवासी और पिछड़ी जाति के 206 लोगों ने पुजारी बनने के लिए बाक़ायदा ट्रेनिंग ली। इनमें एक महिला पुजारी भी शामिल है। पुजारियों को शैव और वैष्णव मंदिरों में पूजा करने की विधि, मंत्रोंच्चारण, आरती और हवन कराने की ट्रेनिंग मिली है। इन्होंने बाक़ायदा परीक्षा पास करके ग्रेजुएशन की डिग्री हासिल की है।
सर्टिफाइड पुजारी का विरोध क्यों ?
यानी ये सभी ग़ैर-ब्राह्मण पुजारी सर्टिफ़ाइड पुजारी हैं जो शायद जन्मजात ब्राह्मण पुजारियों से भी ज़्यादा योग्य हो सकते हैं। लेकिन भी लोग इन ग़ैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्ति का विरोध कर रहे हैं। बीजेपी जो दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के भगवाकरण में लगी रहती है, उसके सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने इसके ख़िलाफ़ कोर्ट जाने का एलान तक कर दिया। अरे भाई, जब सब हिंदू हैं तो दलित, आदिवासी और ओबीसी मंदिर के पुजारी क्यों नहीं बन सकते? क्यों आप अपने भगवान की पूजा एक दलित पुजारी से नहीं कराना चाहते? क्या ओबीसी पुजारी का चढ़ाया भोग आपके भगवान तक नहीं पहुँचेगा? बिल्कुल पहुँचेगा भाई, ये लोग तो सर्टिफ़ाइड पुजारी हैं।
इस तरह से ग़ैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्तियाँ होनी चाहिए?
खैर पॉलिटिक्स से आगे बढ़ते हैं और लॉजिक की बात करते हैं। सवाल है कि मंदिरों में इस तरह से ग़ैर-ब्राह्मण पुजारियों की नियुक्तियाँ होनी चाहिए? इस सवाल के जवाब के लिए मैं आपको बाबा साहब डॉ आंबेडकर की ओर लेकर चलता हूँ।
उनकी किताब है जाति का विनाश, उसके चैप्टर नंबर-24 को पढ़िए। वो यहाँ लिखते हैं ‘पुरोहित का पद वंशानुगत नहीं, योग्यता पर आधारित होना चाहिए। ये बेहतर होगा, यदि हिंदुओं में पुजारीगीरी को समाप्त कर दिया जाये। लेकिन चूंकि यह असंभव प्रतीत होता है, इसलिए पुजारीगीरी कम से कम पैतृक आधार पर न हो। प्रत्येक व्यक्ति को, जो अपने को हिंदू घोषित करता है, पुजारी होने का पात्र मानना चाहिए। कानून द्वारा यह प्रावधान होना चाहिए कि कोई भी हिंदू तब तक पुजारी होने का पात्र
नहीं होगा, जब तक उसने राज्य द्वारा निर्धारित एक परीक्षा पास न कर ली हो और उसके पास पुजारी की तरह काम करने की, राज्य द्वारा जारी सनद (सर्टिफिकेट) न हो।
जिसके पास यह सनद न हो, ऐसे पुजारी द्वारा संपन्न कराया हुआ कोई भी अनुष्ठान कानून की निगाह में वैध नहीं होगा और सनद रहित व्यक्ति द्वारा पुजारी की भूमिका निभाना कानून द्वारा दंडनीय बना दिया जाना चाहिए।
पुजारी को राज्य का कर्मचारी होना चाहिए और अन्य नागरिकों के साथ–साथ उस पर देश का सामान्य कानून तो लागू होना ही चाहिए। उसकी नैतिकता, विश्वासों और उसके द्वारा करायी गयी पूजा के मामलों में उसकी स्थिति ऐसी होनी चाहिए कि राज्य उस पर अनुशासन भंग की कार्यवाही कर सके।
पुजारियों की संख्या किसी विशेष राज्य की आवश्यकताओं के अनुपात में सीमित होनी चाहिए, जैसा कि ICS अधिकारियों के मामले में होता है।’
यानी बाबा साहब के मुताबिक़ पुजारी बनने के लिए UPSC टाइप को परीक्षा होनी चाहिए जिसमें कोई भी शामिल हो सकता है, उस परीक्षा को पास करने वाले आदमी को पुजारी बनने का सर्टिफिकेट मिले और फिर वो पुजारी गिरी का काम कराए। बाबा साहब के फॉर्मूले पर ही तमिलानाडु की स्टालिन सरकार ने ट्रेनिंग कोर्स और एग्ज़ाम कंडक्ट कराए हैं। जो पास हुआ पुजारी बने और जो फेल हुआ वो कोचिंग वगैरह लेकर फिर से परीक्षा पास करने की तैयारी करे। है ना एक दम फेयर कॉम्पिटीशन ?
दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को हिंदू मंदिरों में पुजारी बनना चाहिए?
चलिए अगले सवाल की तरफ़ बढ़ते हैं, क्या दलितों, आदिवासियों और ओबीसी को हिंदू मंदिरों में पुजारी बनना चाहिए? इस बेहद अहम सवाल का जवाब हम राष्ट्रपिता जोतिबा फुले से जानने की कोशिश करते हैं। वो लिखते हैं ‘बाल काटना नाई का धर्म नहीं धंधा है , चमड़े की सिलाई करना मोची का धर्म नहीं धंधा है ,वैसे ही पूजा – पाठ करना और करवाना ब्राह्मण का धर्म नहीं धंधा है’
राष्ट्रपिता जोतिबा फुले बताते हैं कि बाक़ी कामों की तरह ही पूजा-पाठ कराना भी एक पेशा यानी काम ही है। और काम हम इसलिए करते हैं ताकि उससे आमदनी हो और हमारा गुज़ारा हो सके। पूजा-पाठ कराने, हवन कराने और पुजारी बनने में भी खूब पैसा है, सरकारी मंदिरों में तो बाक़ायदा सैलरी भी मिली है, तो अपना घर चलाने के लिए जो लोग इस पेशे को अपनाना चाहते हैं तो इसमें दिक़्क़त क्या है?
मंदिरों और पुजारियों का अर्थशास्त्र समझिए
तमिलनाडु में क़रीब 38,000 मंदिर सरकार के नियंत्रण में है। इस हिसाब से अगर हर मंदिर में तीन पुजारी नियुक्त हों तो कम से कम एक लाख सरकारी नौकरियां बनती हैं। और अगर देश के बाक़ी राज्यों ने भी तमिलनाडु से सीख लेकर गैर-ब्राह्मणों को पुजारी बनाना शुरू कर दिया तो 15 से 20 लाख नौकरियाँ लोगों को मिल सकती है। ज़रा, सोचिए… अभी तक ये सारी नौकरियाँ सिर्फ़ और सिर्फ़ ब्राह्मणों के लिए ही आरक्षित हैं। इसीलिए मैंने शुरूआतें में कहा था कि ब्राह्मण ही जाति के आधार पर आरक्षण लेकर आए थे। अब अगर अन्य जातियों के लोगों को भी इसका लाभ मिलने लगेगा तो 15-20 लाख भर्तियां तो यूँ ही हो जाएँगी।
पुजारी बनने से अंधविश्वास और ब्राह्मणवाद नहीं फैलेगा ?
अब आप सोच रहे होंगे कि नौकरी-वौकरी तो ठीक है लेकिन क्या दलितों, आदिवासियों और ओबीसी के हिंदू मंदिरों में पुजारी बनने से अंधविश्वास और ब्राह्मणवाद नहीं फैलेगा ? इस सवाल के जवाब के लिए मैं आपको पेरियार साहब की तरफ़ लेकर चलता हूँ। दिलीप मंडल जी ने फ़ेसबुक पर एक क़िस्सा शेयर किया है।
एक पत्रकार ने पेरियार साहब से पूछा, पेरियार साहब, आप भगवान वग़ैरह को नहीं मानते। फिर भी आप चाहते हैं कि सभी जातियों के लोग मंदिरों में पुजारी बनें। ऐसा क्यों?
इस पर पेरियार साहब ने जवाब दिया : जिस दिन हर जाति के लोग पुजारी बनने लगेंगे, उस दिन ब्राह्मण भी ये कहने लगेंगे कि मंदिर के अंदर जो है वह पत्थर है, भगवान नहीं। इस तरह मेरा काम आसान हो जाएगा। इसलिए मैं चाहता हूँ सभी जातियों के लोग पुजारी बनें।
पेरियार साहब ने यहाँ एक बड़ा मैसेज दिया है, वो ये समझा रहे हैं कि कैसे अंधविश्वास जैसी चीज़ें तब तक ही फलती-फूलती हैं जब तक उनसे कुछ लोगों का भला होता है, यानी वो जनता को मूर्ख बनाकर उन्हें लूटते रहते हैं लेकिन जैसे ही उन्हें कोई फ़ायदा होना बंद हो जाता है, वो ख़ुद ही ये बताने लगेंगे कि श्राद्ध में कव्वों को खाना खिलाने से आपके पूर्वजों का पेट नहीं भरता।
गैर-ब्राह्मण पुजारी बने तो ब्राह्मण खुद ही कहेंगे मंदिरों में कुछ नहीं ?
एक उदाहरण देकर समझाता हूँ, अक्सर जब कोई शख़्स अपने रिश्तेदार की अस्थियाँ गंगा या किसी और नदी में बहाने जाता है तो वहाँ ब्राह्मण पुजारियों में पूजा कराने को लेकर होड़ लग जाती है, वो अस्थियाँ बहाने आए शख़्स को घेर लेते हैं तो तरह-तरह के ऑफ़र देते हैं कि मुझसे पूजा कराओगे तो ये फ़ायदा हो जाएगा। यही नहीं, ऐसा भी देखने को मिलता है कि कुछ पुजारी तो बाक़ी पुजारियों को ढोंगी या फिर नक़ली पुजारी तक कह देते हैं। वो ऐसा इसलिए कहते हैं क्योंकि उन्हें ख़ुद मालूम होता है कि ये कर्मकांड कराना सिर्फ़ और सिर्फ़ उनका धंधा है, जब ज़्यादा लोग इस धंधे में आएँगे तो उनके अंदर की ये सच्चाई शायद और जल्दी बाहर आने लगेगी।
बहुजन मिशन का क्या होगा?
अब एक और सवाल उठता है। आप सोच रहे होंगे कि नौकरी, धंधा और ये अंधविश्वास की पोल खोल तो ठीक है लेकिन बहुजन मिशन का क्या होगा? बाबा साहब का मिशन तो अधूरा ही रह जाएगा? यहां मैं आपको कुछ सख़्त जवाब देना चाहूँगा। पिछले 75 सालों में आप बाबा साहब के मिशन को क्यों नहीं पूरा कर पाए? किसने रोका था? और दूसरी बात ये कि बाबा साहब ने बहुजनों को बुद्ध का रास्ता दिखाया था। क्यों आज तक सारे बहुजनों उस रास्ते पर चलना भी शुरू नहीं किया? क्यों सारे दलित आजतक बौद्ध नहीं बने?
दिलीप मंडल साहब इस बारे में लिखते हैं ‘दलितों को बौद्ध बनाने का बाबा साहब का दिया प्रोजेक्ट उनके पास है। उस पर ध्यान देना चाहिए। 20 करोड़ दलितों में अभी 1 करोड़ भी बौद्ध नहीं बने हैं। जबकि ऐसा करने से रिज़र्वेशन पर भी कोई असर नहीं पड़ना है। दलित बौद्ध बन गए और दूसरी तरफ़ मंदिरों पर ब्राह्मण नियंत्रण ख़त्म हो गया तो ब्राह्मणवाद ख़त्म। ठीक है?’
आप बौद्ध बनिए, जो खुद को हिंदू मानता है वो पुजारी भी बने
सिंपल सा लॉजिक है, आप बाबा साहब के रास्ते पर चलिए, बौद्ध धम्म अपनाइये, आप बौद्ध बनेंगे तो आपके ऊपर से हिंदू धर्म का वर्चस्व अपने आप ख़त्म हो जाएगा और जो ग़ैर-ब्राह्मण लोग बच जाएँगे उन्हें मंदिरों में पुजारी बनने दो, अगर मंदिरों, मठों और धार्मिक संस्थाओं पर ब्राह्मणों का क़ब्ज़ा ख़त्म हो गया तो ब्राह्मणवाद तो ख़ुद ही दम तोड़ देगा। आप बौद्ध हो गए तो दूसरे धर्म में क्या होता है और क्या नहीं, उससे आपको क्या लेना-देना… वो सँभाल लेंगे अपना अंदरूनी मामला। इसलिए ज़्यादा हायतौबा मत मचाइये, बाबा साहब के मिशन की दुहाई देते हैं तो उसके लिए काम कीजिए। अक्ल लगाइये और बाबा साहब के सपनों का भारत बनाइये। आप हिंदू हैं ही नहीं इसलिए आप बुद्ध के रास्ते पर चलिए। जो खुद को हिंदू मानता है, उसे पुजारी बनने का भी हक मिलना चाहिए।
सौजन्य : द शुद्र
नोट: यह समाचार / लेख शुद्धरूप से गैर व्यवसायिक/अलाभकारी व मानवाधिकारों के प्रति संवेदनशीलता व जागरूकता के प्रसार के लिये द शुद्र की साईट से लिया गया है l